मेरी ऐसी ही कुछ दुविधा में था मन ,
की किस ओर चला हूँ मैं ।
नामवरी में फंसा यह जीवन ,
कब तक यूं जी पाऊंगा मैं ।
मेरे विचलित इस मन में,
तब यह बात थी आनी
कितना भी ऊंचा हो जाए तरु
जीने के लिए उसे चाहिए पानी ।
जब जीवन में लक्ष्य ना हो
तो वो जीवन व्यर्थ है
अगर कुछ चाहिए ही नहीं अभिप्राय को तेरे
तो तेरा अस्तित्व असमर्थ है ।
अपने जीवन के पानी कि तलाश में
निकल पड़ा था मैं व्याकुल
और उस कुम्हलती शाम के बाद
मिला नहीं उत्तर अनुकूल ।
ढूंढना था मुझे वह अमृत
जो मेरे जीवन मैं नहीं था
ढूंढना था वह संतुलन
जो रह के भी नहीं था ।
फिर अचानक उसी ढूंढ में
मिला एक जोगी मेरी राह में
देख कि वह भी था पथ ढूंढता
मैं पहुँचा उसकी निगाह में ।
मेरी समस्या थी कठिन
यह बात समझ गए थे वह
भला ऐसा कोई इंसान होता है
जिसे ना पता क्या चाहता वो ?
मेरी मनस का यह तूफान
धीरे धीरे धधक रहा था
और कहीं छुपा मेरा असली रूप
मंद ही मंद सिसक रहा था ।
जोगी भी परेशान उठा
और कुछ वो भी बोखलाया
फ़िर मुझे एक जगह बिठा
उसने मुझे धैर्य दिलाया ।
पर मन और सागर में
होती है एक चीज़ समान
कोई रोक नहीं पाता दोनों को
होता है उनमें इतना अभिमान ।
उसके लाख समझाने से भी
प्यास मेरी ना बुझती थी
मेरे को हर पल बस
मेरी अपूर्णता दिखती थी ।.
भाग खड़ा में वहाँ से फिर
एक अँधा काला सा प्राणी
अब कोई न जवाब दे पाया मेरा
तब बुरी लगी मुझे सबकी वाणी ।
इसलिए आज भी में कहता हूँ
अपने मन कि गहराई को जानो
दिल में क्या तेरे अनबन,
इनको तुम निस्संन्देह पहचानो ।
जान लो ख़ुद को जानना
ही है सबसे अनमोल वर
और अपनी सरगम पहचानना हि
है पाना वोह बहुमूल्य स्वर
वरन मेरी तरह, कुछ युं ही
हाल तुम्हारा भी होएगा
और फिर कुछ मेरी तरह तू भी
हंस हंसकर भी रोएगा ।
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